Bharat Ram Ka Prem Class 12 Summary | भरत-राम का प्रेम

Table of content:

1. तुलसीदास का जीवन परिचय
2. भरत-राम का प्रेम कविता का सारांश
3. भरत-राम का प्रेम कविता
4. भरत-राम का प्रेम कविता की व्याख्या
5. भरत-राम का प्रेम प्रश्न अभ्यास
6. कठिन शब्द और उनके अर्थ
7. Class 12 Hindi Antra All Chapter

तुलसीदास का जीवन परिचय- Tulsidas ka Jeevan Parichay

भक्त कवि तुलसीदास जी का जन्म बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में हुआ था। तुलसीदास जी के जन्म स्थान को लेकर कुछ विद्वानों में मतभेद भी है। तुलसीदास जी को रामभक्ति शाखा का कवि माना जाता है।


तुलसीदास जी का बचपन बहुत ही अभाव में बीता था। नरहरिदास जी कवि तुलसीदास जी के गुरू थे। इनके सानिध्य में आकर कवि तुलसीदास जी को राम-भक्ति का मार्ग मिला।

रचनाएं रामचरितमानस की रचना कवि तुलसीदास जी ने ही की थी। जिसमें कुल 7 कांड हैं। रामचरितमानस राम जी के जीवन से जुड़ा हुआ है।

कवि तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में श्री राम जी के साथ-साथ भिन्न देवताओं के स्तुतियों का गान किया है।

पार्वती मंगल, गीतावली, विनय पत्रिका, कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण इत्यादि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं।

तुलसीदास जी की मृत्यु काशी के अस्सी घाट पर 1680 को हुई थी।

भरत-राम का प्रेम कविता का सारांश- Bharat Ram Ka Prem Poem Short Summary

भरत-राम का प्रेम कविता कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई है। रामचरितमानस कुल 7 खंडों में विभाजित है, प्रस्तुत पंक्तियां अयोध्या कांड से ली गई हैं।

प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में उस समय के दृश्य का वर्णन किया गया है, जिस समय भगवान श्रीराम को वनवास जाना पड़ा था। श्री राम के वनवास जाने के पश्चात उनके भाई भरत की जो मनोदशा हुई थी उसी मनोदशा का चित्रण कवि ने अयोध्या कांड में किया है।

भरत इसलिए दुःखी हैं क्योंकि उनके भ्राता श्रीराम कभी भी उनको निराश नहीं करते थे। भरत जब छोटे थे तब उनके साथ श्रीराम खेलते थे। वे जहां भी जाते थे उनके भाई भरत भी उनके साथ-साथ जाते थे।

मगर जब श्री राम वनवास के लिए जा रहे थे, तब भरत को अपने साथ नहीं ले गए इस बात का उन्हें दुःख हो रहा है।

श्री राम के वनवास जाने से ना केवल भरत दुःखी हैं, बल्कि श्री राम की माताएं भी अत्यंत व्यथित हैं।

भरत-राम का प्रेम कविता- Bharat Ram Ka Prem Poem

पुलकि सरीर सभां भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानउं निज‌ नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूं देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउं न संगू। कबहूं न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही। हारेंहूं खेल जितावहिं मोंही।।

महूं सनेह सकोच बस सनमुख कहीं न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यही कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदिर मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदेव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउं जायं जननि कहि काकू।।
हृदयं हेरि हारेउं सब ओरा। एकहि भांति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।

साधु समां गुर प्रभु निकट कहउं सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।

भूपति मरन पेम पनु खारी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सनि समुझि सहिउं सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयदेहि पाएं। संकरू साखि रहेउं ऐहि घाएं।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आंखिन्ह देखेउं आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग सांपनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी।।

तेइ रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दैउ सहावइ काहि।।

–  रामचरितमानस से

भरत-राम का प्रेम कविता का सारांश- Bharat Ram ka Prem Ka Poem Explanation

पुलकि सरीर सभां भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानउं निज‌ नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूं देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउं न संगू। कबहूं न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही। हारेंहूं खेल जितावहिं मोंही।।

महूं सनेह सकोच बस सनमुख कहीं न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।

भरत राम का प्रेम प्रसंग- प्रस्तुत काव्य पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-7 कविता ‘भरत राम का प्रेम’ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं। कवि ने भरत का अपने बड़े भाई राम के प्रति प्रेम व्यक्त किया है।

भरत राम का प्रेम भावार्थ:- इन पंक्तियों में भरत अपने बड़े भाई श्री राम जी को मनाकर अयोध्या वापस लाने के लिए वन की ओर जाते हैं।

वन पहुंचते ही भरत अपने भाई श्री राम को वशिष्ठ मुनि के साथ एक सभा में देखते हैं। सभा में पहुंचते ही वशिष्ठ मुनि भरत को वहां आने का कारण पूछते हैं। भरत बहुत भावुक थे और कमल जैसे नेत्रों से अश्रु बहा रहे थे।

भरत कहते हैं, मैं जो कहने वाला था वह तो मुनिवर ने कह दिया। अब मैं क्या कहूं? फिर भरत कहते हैं कि मेरे भ्राता श्री राम के स्वभाव को मैं जानता हूं। श्री राम गलती करने वाले को भी गलती से नहीं डांटते। इनके अंदर इतना स्नेह है कि उस स्नेह की तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।

फिर भरत कहते हैं कि मैं बचपन में अपने भ्राता श्री राम के साथ खेल चुका हूं। मेरा बचपन मेरे भ्राता श्री राम के साथ बीता है। खेल में भी कभी वह गुस्सा नहीं करते थे। बचपन में मैं अपने भाई श्री राम का साथ कभी नहीं छोड़ता था और श्रीराम भी मेरा साथ कभी नहीं छोड़ते थे, ना ही उन्होंने मेरा हृदय कभी तोड़ा है।

भरत कहते हैं जब मैं बचपन में खेल में हार जाता था, तब प्रभु श्रीराम मेरी हार को जीत में परिवर्तित कर देते थे। अर्थात उनकी विशेष कृपा है मेरे ऊपर।

संकोच वश मैंने भी कभी उनसे कुछ नहीं कहा। लेकिन आज मेरे नयन उनके दर्शन के अभिलाषी बन गए हैं। इसलिए मैं अपने प्रभु, अपने भ्राता श्री राम को अपने साथ अयोध्या वापस ले जाना चाहता हूं।

भरत राम का प्रेम विशेष:- 

1.करूण रस का प्रयोग है।

2.नीरज नयन नेह, खेलत खुनिस, सनेह सकोच, पेम पिआसे, में अनुप्रास अलंकार है।

3. अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

4. कविता में लयात्मकता है।

5. कवि ने भरत का अपने भाई के प्रति प्रेम का वर्णन किया है।

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यही कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदिर मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदेव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुं दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउं जायं जननि कहि काकू।।
हृदयं हेरि हारेउं सब ओरा। एकहि भांति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइं साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।

साधु समां गुर प्रभु निकट कहउं सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।

भरत राम का प्रेम प्रसंग- प्रस्तुत काव्य पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-7 कविता ‘भरत राम का प्रेम’ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं। भरत अपनी माता की निंदा करते हैं।

भरत राम का प्रेम भावार्थ- मेरे प्रभु श्री राम मुझसे इतना प्यार करते हैं कि विधाता उस प्यार को सहन न कर सका और मुझसे मेरे भाई को इतना दूर भेज दिया। दूर भेजने के पीछे हमारी अपनी माता का ही हाथ है।

अपनी मां की निंदा करते हुए भरत कहते हैं। मुझे पता है कि मैंने अपनी माता की निंदा की है, जो किसी पाप से कम नहीं है। मैं साधु नहीं हूं, लेकिन मेरी समझ में यही सही है।

मेरी माता नीच है और मैं साधु हूं, ऐसा कहना भी मेरे लिए किसी अपराध से कम नहीं है। मैं दुराचारी माता का दुराचारी पुत्र हूं। भरत खुद को अपराधी मानते हैं।

फिर भरत कहते हैं कि मैं सपने में भी किसी को दोष नहीं देता। आज मेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है, यह सब मेरे भाग्य के कारण हो रहा है।

मैंने जो पाप किया है, उस पाप का परिणाम बिना जाने मैंने अपनी माता को कटु शब्द कहे हैं और अपनी माता को व्यर्थ ही कष्ट दिया है।

मेरा भाग्य ही दोषी है और अब मुझे इन सभी दोषों से कौन बचा सकता है। मेरा उद्धार कौन कर सकता है, यह बातें मन ही मन करते हैं। बहुत सोचने के बाद भरत कहते हैं कि मेरा उद्धार एक ही व्यक्ति कर सकता है और वह है प्रभु श्री राम।

प्रस्तुत सभा में उपस्थित होकर भरत कहते हैं कि मैंने जो कुछ भी कहा वह अपने प्रभु श्री राम एवं इस सभा में उपस्थित सभी मुनिवरों के समक्ष कहा है और बिल्कुल सत्य कहा है। मेरे अंदर कोई छल, कपट व्याप्त नहीं है और इस बात से मेरे भ्राता श्री राम एवं वशिष्ठ मुनि भली-भांति परिचित हैं।

भरत राम का प्रेम विशेष:-

1. अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

2. कविता में लयात्मकता है।

3. इन पंक्तियों में अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार है।

भूपति मरन पेम पनु खारी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सनि समुझि सहिउं सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयदेहि पाएं। संकरू साखि रहेउं ऐहि घाएं।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आंखिन्ह देखेउं आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग सांपनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी।।

तेइ रघुनंदन लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दैउ सहावइ काहि।।

कठिन शब्द– धनुहियां- धनुष-बाण, पनहियां- जुतियां, चित्रलिखी- चित्र के समान, सिखी- मोर।

भरत राम का प्रेम प्रसंग- प्रस्तुत काव्य पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-7 कविता ‘भरत राम का प्रेम’ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं। भरत ने अपने पिताजी की मृत्यु और बड़े भाई राम के वनवास जाने के लिए अपनी माता कैकई को ही दोषी मानते हैं।

भरत राम का प्रेम भावार्थ- अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए भरत कहते हैं कि आज हमारे पिता दशरथ की मृत्यु हमारी माता के कुबुद्धि के कारण हुई है। आज माता के कारण ही भ्राता श्री राम को वनवास प्राप्त हुआ और हमारे पिताजी को मृत्यु प्राप्त हुई यह सब कुछ हमारी माता कैकई के कारण ही हुआ है।

संपूर्ण दुनिया इस बात की साक्षी है। भरत कहते हैं कि राम के वियोग में हमारी सारी माताएं बहुत दुखी हैं और माताओं के चेहरे से दुःख दूर हटाने के लिए भरत राम को वापस अयोध्या ले जाने के लिए आए हैं।

राम के वियोग में समस्त अवध वासी रो रहे हैं। मैंने भी दुःख सहा है। इतना दुख सहकर भी मेरे प्राण नहीं निकले, इतने दुख सहकर भी मैं आज जीवित हूं।

अंत में भरत कहते हैं कि मेरे भ्राता श्री राम के सानिध्य में जो भी व्यक्ति आता है उसके मन के सारे पाप धुल जाते हैं और वह सच्चा व्यक्ति बन जाता है। मेरे भाई प्रभावी हैं।

आज माता कैकई के कर्मों का फल मुझे अर्थात भरत को मिल रहा है। तभी तो मेरे जीवन में सब कुछ बदल रहा है। संपूर्ण पंक्तियों में भारत ने अपने आप को दोषी समझा है।

अंत में तुलसीदास जी कहते हैं कि माता कौशल्या की स्थिति उस मोर के समान हो जाती है, जो मोर अपने पंखों को देखकर नाचता रहता है और जब उसकी नजर अपने खुद के पैर की ओर पड़ती है, तो वह उदास हो जाता है। माता कौशल्या को अंतिम पंक्तियों में सच्चे प्रेम से मिलाप होता है।

भरत राम का प्रेम विशेष:-

1. अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

2. इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार, उपमा अलंकार एवं पुनरूक्ति अलंकार हैं।

3. कविता में लयात्मकता है।

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