Class 12 Hindi Chapter 8 Barahmasa Poem Summary in Hindi
बारहमासा कविता क्लास 12 अंतरा पाठ 8 – मलिक मुहम्मद जायसी
नमस्कार, दोस्तों! इस ब्लॉग में आप पढ़ने वाले हैं:
1. मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय
2. बारहमासा कविता का सारांश
3. बारहमासा कविता
4. बारहमासा कविता की व्याख्या
5. बारहमासा कविता प्रश्न उत्तर
मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय: मलिक मोहम्मद जायसी का जन्म सन 1467 ई़ में हुआ था। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के निवासी थे अतः उन्हें जायसी कहा जाने लगा स्वयं जायसी जी कहते हैं कि
जायस नगर मोर अस्थानू।
नगरक नांव आदि उदयानू।
तहां देवस दस पहुने आएऊं।
भा वैराग बहुत सुख पाएऊं॥
जायसी जी भक्तिकाल के प्रेमाश्रयी शाखा के कवि थे। पद्मावत इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कृति है। इसके अतिरिक्त इनकी 21 कृतियाँ हैं जिनमें अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा, कान्हावत प्रमुख हैं।
जायसी जी की भाषा में अरबी, फ़ारसी सहित कई क्षेत्रीय भाषाओं व बोलियों का प्रयोग दिखता है।
माना जाता है कि इनको अमेठी के राजा का संरक्षण प्राप्त था। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इनका देहांत 1558 में हुआ।
बारहमासा कविता का सारांश – Barahmasa Poem Summary
यह काव्यखण्ड मलिक मोहम्मद जायसी की प्रसिद्ध कृति पद्मावत के बारहमासा से उद्गृत हैं। इस पद्यांश में कवि ने मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन माह राजा रत्नसेन की वियोग पीड़ा में संतृप्त रानी नागमती की दशा का मार्मिक निरुपण किया है।
अगहन माह में बड़ी होती रात व छोटे होते दिन के बीच भौरों व कौवों से प्रियतम तक उसकी दशा का संदेश पहुंचाने की विनती करती है। पूस की ठंड में नागमती को उष्ण वस्त्रों से युक्त बिस्तर भी बर्फ के समान ठंडा लगता है। माघ माह में पड़ने वाला पाला नागमती के शरीर को बेजान बना देता है तो वर्षा अश्रुधारा को और तेज़ कर देती है।
इसी प्रकार फाल्गुन में लोग जहां रंग खेल रहे होते हैं वहीं नागमती का जीवन बेरंग व रसहीन बना हुआ है। नागमती की आकांक्षा है कि उसके शरीर को जलाकर भस्म कर दिया जाए तथा राख को प्रियतम के मार्ग पर बिछा दिया जाए।
बारहमासा कविता- Barahmasa Poem
(1)
अगहन दिवस घटा, निसि बाढी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढी ? ॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥
पिउ सौ कहेहु सँदेसडा, हे भौंरा ! हे काग !
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥
(2)
पूस जाड थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूडी । जानहु सेज हिवंचल बूडी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाडा । जियत खाइ औ मुए न छाँडा ॥
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहु पंख ॥
(3)
लागेउ माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥
तुम बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल ॥
(4)
फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरें ॥
यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाउ’ ।
मकु तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥
बारहमासा कविता की व्याख्या – Barahmasa Poem Line by Line Explanation
अगहन दिवस घटा, निसि बाढी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढी ? ॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥
पिउ सौ कहेहु सँदेसडा, हे भौंरा ! हे काग !
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥
बारहमासा कविता का प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-8 कविता ‘बारहमासा’ से ली गई हैं। इस कविता के रचियता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। कवि ने अगहन माह के आने के साथ ही नागमती की विरह दशा का वर्णन किया है।
बारहमासा कविता की व्याख्या- प्रस्तुत पद्यांश में जायसी जी मार्गशीर्ष के आगमन व नागमती की मनोदशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अगहन के आने के साथ ही दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगीं हैं।
विरह वेदना से संतृप्त रानी के लिए इतनी लंबी रातें काटना कठिन हो रहा है। नागमती वियोग में दीपक के समान जल रही है। ठंड का अनुभव होने लगा है और हृदय कांप रहा है। ऐसी स्थिति में प्रियतम का दूर चले जाना अत्यंत कष्टकारी है।
लोग मंगलगीत व रंगों में व्यस्त हैं लेकिन नागमती के जीवन में रंगों का अभाव हो गया है। वज्र के समान विरह अग्नि से नागमती का हृदय जल रहा है और शरीर सुलग सुलग कर राख होता जा रहा है।
यह दुख दर्द किसी और की समझ से परे है, जिससे विरहणी का शरीर भस्म होता जा रहा है। नागमती भौरें व कौवे से प्रियतम तक अपनी दशा का संदेश पहुंचाने का आग्रह कर रही है। साथ ही कह रही है कि विरह ज्वाला में जल रही नागमती के धुएं के स्पर्श से ही वे काले हो गए हैं।
बारहमासा कविता का विशेष:-
1. कविता की भाषा फ़ारसी और अवधी मिश्रित है।
2. घर घर, सुलुगि-सुलुगि, फिरै फिरै में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
3. जोबन जनम, दुख दगध में अनुप्रास अलंकार है।
4. नागमती की विरह दशा का वर्णन है।
पूस जाड थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूडी । जानहु सेज हिवंचल बूडी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाडा । जियत खाइ औ मुए न छाँडा ॥
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥
बारहमासा कविता का प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-8 कविता ‘बारहमासा’ से ली गई हैं। इस कविता के रचियता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। कवि ने नागमती के वियोग को पीड़ा का चित्रण किया है।
बारहमासा कविता की व्याख्या- कवि जायसी पूस की ठंड में वियोग पीड़ित नागमती का चित्रण करते हुए बता रहे हैं कि पूस माह के जाड़े से शरीर थर थर कांप रहा है। और सूरज मानो लंका दिशा की ओर जा छुपा हो अर्थात राजा रत्नसेन लंका की ओर चले गए हैं।
विरह वेदना से रानी का बेहद दारुण यानि दयनीय अवस्था में आ गयी हैं और ठंड की कंपकंपी उनका जीवन हरने को आतुर है। प्रियतम कहाँ गए यह समझ नहीं आ रहा है, ना ही उनके ढूढने का उपाय दिख रहा है।
कई रास्ते हैं परन्तु निकट भविष्य में कोई भी मार्ग प्रियतम तक पहुंचाने के लिए नहीं सूझ रहा है। ठंड में गर्मी प्रदान करने वाला वस्त्र सौंर संपेती भी हिमालय की बर्फ के समान बिस्तर प्रतीत हो रहा है।
कोकिला व चकई भी नियत काल में मिल जाते हैं। जब रात्रि में सखी प्रियतम के बिना अकेली है तब इस वियोग पीड़ा से संतृप्त नागमती रूपी पक्षी कैसे जीवित रह सकती है। ठंड में वियोग से परेशान नागमती बाज से उसे जीवित अवस्था में ही खा लेने का आग्रह कर रही है और कह रही है इस अवस्था में उसे ना छोड़े।
नागमती का रक्त सूख चुका है और मांस गल चुका है। शरीर मात्र हाड़ के समान बचा है। नागमती एक पंख समेटे हुए सारस के समान प्रतीत हो रही हैं।
बारहमासा कविता का विशेष:-
1. कविता की भाषा फ़ारसी और अवधी मिश्रित है।
2. सौंर सपेती, कंत कहाँ, सब संख, बिरह बाढ़ में अनुप्रास अलंकार है।
3. थर थर, कँपि कँपि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
लागेउ माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥
तुम बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उढावा झोल ॥
बारहमासा कविता का प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-8 कविता ‘बारहमासा’ से ली गई हैं। इस कविता के रचियता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। कवि ने माघ माह में नागमती को विरह दशा का वर्णन किया है।
बारहमासा कविता की व्याख्या- इस काव्यांश में जायसी जी माघ माह में विरह से व्याकुल नागमती के दुःख की अभिव्यक्ति करते हुए निरुपित कर रहे हैं कि माघ माह का आगमन हो चुका है तथा पाला पड़ने लगा है परन्तु वियोग के समय ने नागमती की काया को काला व मृत समान बना दिया है।
बार बार शरीर को गर्म वस्त्रों से ढकना पड़ रहा है और बार बार नागमती का शरीर और अधिक कांप रहा है। नागमती कह रही है पतिदेव सूर्य के आगमन से कुछ ताप तो आता है परन्तु आपके बिना यह जाड़ा नहीं जाता है।
इसी माह श्रृंगार भाव की उत्पत्ति होती है परन्तु प्रियतम के दूर रहने से नागमती का प्रफुल्लित होता यौवन निर्रथक सिद्ध हो रहा है। नागमती की आंखों से माघ माह में होने वाली तेज़ वर्षा के समान अश्रु बह रहे हैं।
प्रियतम के बिना नागमती के अंगों का सौंदर्य अर्थहीन हो गया है तथा वह एक रसहीन जीवन व्यतीत करने को विवश है। आंखों से गिरती हुई बूंदे ओले के समान प्रतीत हो रही हैं तथा बहती हुई पवन झकझोर कर विरह वेदना को और बढ़ा रही है।
नागमती कह रही है किसके लिए श्रृंगार करें ? किसके लिए आकर्षक वस्त्र पहने और किसके लिए गले में हार व शरीर पर आभूषण पहने?
नागमती कह रहीं हैं प्रियतम आपके बिना हृदय कंपित हो रहा है तथा तन डोल रहा है। विरह वेदना मेरे शरीर को जलाकर समाप्त करती जा रही है।
बारहमासा कविता का विशेष:-
1. कविता की भाषा फ़ारसी और अवधी मिश्रित है।
2.टप टप, पहल पहल, हहरि हहरि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
3. तन तिनउर, पहिरु पटोरा में अनुप्रास अलंकार है।
4. कवि ने माघ महीने का वर्णन किया है।
फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥
यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाव’ ।
मकु तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥
बारहमासा कविता का प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-8 कविता ‘बारहमासा’ से ली गई हैं। इस कविता के रचियता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। कवि ने बताया है कि किस प्रकार लोग होली के आगमन से खुश हैं वही नागमती अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में दिन-रात व्याकुल है।
बारहमासा कविता की व्याख्या- जायसी जी फाल्गुन माह में पति वियोग से व्यथित नागमती की मनोदशा को वर्णित करते हुए कह रहे हैं कि फागुन माह में बहने वाली हवा ने ठंड को चारगुना बढ़ा दिया है, जिसे नागमती सहन नहीं कर पा रही है। नागमती का शरीर सूख कर पत्ते के समान हो गया है जिसे विरह वेदना ने झकझोर दिया है।
तिनके गिर रहे हैं तथा फूल खिल रहे हैं। वनस्पतियों में उत्साह है अर्थात अब वातावरण में हर प्रकार के फूल वनस्पतियां इत्यादि पुष्पित पल्लवित होने लगे हैं, परन्तु नागमती के मन मानस में उदासी व्याप्त है।
होली का उत्सव आ रहा है। लोग एक दूसरे को रंग लगाने को आतुर हैं लेकिन नागमती बेरंग व उदास व अकेली है। विरह वेदना से जल रही नागमती शोक व रोष का अनुभव कर रही है। रात-दिन विलाप करके प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।
नागमती दुःख की पराकाष्ठा में पहुंचकर कहती है कि उसका शरीर जलाकर राख कर दिया जाए तथा राख को उस मार्ग में फैला दिया जाए जहां से उसके पति होकर गुजरे अथवा उनके पांव पड़ें हों।
बारहमासा कविता का विशेष:-
1. कविता की भाषा फ़ारसी और अवधी मिश्रित है।
2. पियर पात, मरत मोहिं में अनुप्रास अलंकार है।
3. झरहि झरहिं पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. होली के उत्सव का वर्णन है।
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