- Table of Content:
1. विद्यापति का जीवन परिचय
2. विद्यापति के पद कविता का सारांश
3. विद्यापति के पद कविता
4. विद्यापति के पद कविता की व्याख्या
5. विद्यापति के पद कविता प्रश्न अभ्यास
Vidyapati Ke Pad Class 12 Hindi Antra Chapter 9 Summary
विद्यापति का जीवन परिचय- Vidyapati Ka Jeevan Parichay:
विद्यापति जी का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। उन्हें ‘महाकवि कोकिल’ के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म बिहार के मधुबनी जिले के बिसपी गाँव में हुआ था परंतु उनके जन्मकाल के विषय में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 1350ई से 1374ई के मध्य हुआ था।
विद्यापति के पिता का नाम श्री गणपति ठाकुर और माता का नाम श्रीमति हांसिनी देवी था। विद्यापति जी अत्यंत बुद्धिमान एवं तर्कशील व्यक्ति थे। विद्यापति जी संस्कृत के एक महान साहित्यकार थे। इसके अलावा भूगोल, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, न्याय आदि विषयों के भी महान जानकार थे।
वो मिथिला नरेश राजा शिवसिंह के प्रिय मित्र होने के साथ ही राजकवि और उनके सलाहकर भी थे। इन्होंने अपनी सभी रचनाओं में संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिल भाषाओं का उपयोग किया है। इनकी कविताओं में मध्यकालीन मैथिल के दर्शन होते हैं। इसके अलावा भी उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था।
विद्यापति जी को ‘संधि कवि’ के रूप में भी जाना जाता है। ‘पदावली’ उनके यश में मील का पत्थर साबित हुई। विद्यापति जी श्रृंगार और भक्ति रस के कवि थे और इनकी मुख्य रचनाएँ हैं कीर्तिलता, मणिमंजरा नाटिका,पदावली, भूपरिक्रमा आदि।
विद्यापति जी को मैथिल के सर्वोपरि कवि के रूप में जाना जाता है। विद्यापति जी को ‘महाकवि’ की उपाधि दी गयी। मिथिला क्षेत्र के जनजीवन में विद्यापति जी की कवितायें आज भी विभिन्न महत्त्वपूर्ण एवं धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग की जाती हैं।
इन्होंने मिथिला के लोगों को लोकभाषा को जीवित रखने के लिए प्रेरित किया। ‘पदावली’ और ‘कीर्तिलता’ इनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ हैं, जो कि आज भी जीवित हैं और आगे भी जीवित रहेंगी। सन 1440ई से 1448ई के मध्य विद्यापति जी की मृत्यु हो गयी।
विद्यापति के पद कविता का सारांश- Vidyapati Ke Pad Class 12 Summary
प्रस्तुत पदों में कवि ने विरहिणी के मन की व्यथा और दुःख को प्रकट किया है। नायिका अपने प्रियतम से बिछोह के कारण अत्यंत कष्ट में है। उसके नेत्रों से लगातार आँसू बह रहे हैं। नायक गोकुल छोड़ कर मथुरा जा बसे हैं और वो अब कार्तिक मास में ही वापस आ पाएंगे। तब तक नायिका से यह विरह सहा नहीं जा रहा है।
नायिका नायक को पत्र लिखती है और उसे अपने प्रियतम तक पहुंचाना चाहती है , उससे अपनी हृदय की बातें कहना चाहती हैं। वह अपने प्रीतम को जी भर के देखना चाहती है उसकी आवाज सुनना चाहती है। नायिका के कानों में उसके प्रियतम की आवाज़ गूँजती रहती है। जन्म-जन्मांतर से देखने के बाद भी उनका रूप बार- बार देखना चाहती है। उन्हें देख- देखकर नेत्र संतुष्ट नहीं होते हैं।
इस प्रकार कवि ने प्रस्तुत पंक्तियों में नायक एवं नायिका के बिछोह को दर्शाया है, उन्होंने यह दर्शाया है कि जब श्री कृष्ण गोकुल छोड़ कर मथुरा चले जाते हैं, तब राधा कितनी दुःखी होती है एवं किस प्रकार उनके मिलन को तरसती है।
वो लगातार आँसू बहा रही है और खिलते हुए फूलों और भँवरों की गुंजन से दूर भागती है। अपने प्रियतम का मुख देखने को उनकी आँखें तड़पती रहती है उनकी मधुर ध्वनि सुनने के लिए उनके कान तरसते हैं। वो अपने सारे दुःख अपनी सखी के साथ साझा करते हुए बिलख रही हैं और चौदस के चंद्रमा के समान पल-पल क्षीण होती जा रही हैं।
विद्यापति के पद कविता- Vidyapati Ke Pad Poem
(1)
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास ।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास । ।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए ।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए । ।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल ।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल । ।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरू मन आस ।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास । ।
(2)
सखि हे , कि पुछसि अनुभव मोए ।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए । ।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ।
सेहो मधुर बोल सवनहि सूनल स्नुति पथ परस न गेल । ।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि ।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल । ।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख । ।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक । ।
(3)
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयान ।
कोकिल – कलरव , मधुकर – धुनि सुनि ,
कर देइ झाँपइ कान । ।
माधब , सुन-सुन बचन हमारा ।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि –
गुनि – गुनि प्रेम तोहारा । ।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ ,
पुनि तहि उठइ न पारा ।
कातर दिठि करि , चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल – धारा । ।
तोहर बिरह दिन छन –छन तनु छिन –
चौदसि – चाँद – समान ।
भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति
लखिमादेइ – रमान । ।
विद्यापति के पद कविता की व्याख्या- Vidyapati Ke Pad Poem Line by Line Explanation
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास ।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास । ।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए ।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए । ।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल ।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल । ।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरू मन आस ।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास । ।
विद्यापति के पद प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-9 में संकलित कविता ‘पद’ से उद्धृत हैं। इसके रचियता विद्यापति जी है। इन पंक्तियों में कवि विद्यापति जी ने नायिका के हृदय की विरह व्यथा को प्रस्तुत किया है। नायक अर्थात श्री कृष्ण गोकुल को छोड़ कर मथुरा जा बसे हैं।
विद्यापति के पद भावार्थ- सावन मास में नायिका अपने प्रियतम को स्मरण कर रही हैं वो नायक को एक पत्र भेजना चाहती हैं और अपनी सखी से पूछती हैं कि उनका पत्र उनके प्रियतम तक कौन पहुंचाएगा, क्या ऐसा कोई नहीं है जो उनका पत्र उनके प्रियतम तक पहुंचा सके।
इस पत्र में नायिका ने अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। वो कहती हैं कि श्रावण मास आ गया है और उनसे अपने प्रियतम का बिछोह नहीं सहा जा रहा है, उन्हें असहनीय पीड़ा हो रही है। इस बड़े भवन में उनसे अपने प्रिया के बिना रहा नहीं जा रहा है, उन्हें इतनी ज्यादा पीड़ा हो रही है कि इस संसार में कोई भी उनकी वेदना को समझ नहीं सकता।
श्री कृष्ण स्वयं तो गए ही हैं साथ ही उनका मन भी अपने साथ लेकर चले गए हैं। गोकुल छोड़ कर मथुरा जा बसे हैं और यहाँ उनकी बदनामी हो रही है, वो कब वापस आएंगे। कवि विद्यापति जी नायिका को धीरज रखने को कहते हैं , वे कहते हैं कि तुम्हारे प्रियतम इसी कार्तिक मास में तुम्हारे पास वापस आ जाएंगे।
विद्यापति के पद विशेष:-
1.मोर मन हरि हर, धनि धरू, दुख दारुन में अनुप्रास अलंकार है।
2. पद में गेयता है।
3. मैथिली भाषा का प्रयोग हुआ है।
सखि हे , कि पुछसि अनुभव मोए ।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए । ।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल ।
सेहो मधुर बोल सवनहि सूनल स्नुति पथ परस न गेल । ।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि ।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल । ।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख । ।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक । ।
विद्यापति के पद प्रसंग– प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-9 में संकलित कविता ‘पद’ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों के रचयिता विद्यापति जी हैं। कवि ने राधा के मन की व्यथा का वर्णन किया है।
विद्यापति के पद भावार्थ- इन पंक्तियों में कवि ने राधा के अतृप्त हृदय का वर्णन किया है। राधा अपने पुराने अनुभवों को याद कर के मुग्ध होती रहती हैं। उन्हें देख कर उनकी सखियाँ उनसे अपने अनुभव बांटने को कहती हैं।
इस पर राधा अपनी सखियों को कहती हैं कि हे सखी मैं अपने अनुभव तुमको कैसे बताऊँ इसे तो मैं स्वयं ही समझ नहीं पाती। अपने प्रेम अपनी प्रीति का जितना ज्यादा बखान करती हूँ वो तो उतना ही ज्यादा तिल तिल नया सा होता जाता है। सारा जीवन मैंने अपने प्रियतम का रूप निहारा है परंतु फिर भी मेरे नयन तृप्त नहीं हुए ।
सारा जीवन मैंने उनकी मधुर ध्वनि को सुना है फिर भी मेरे कान उनसे तृप्त नहीं हुए और वैसे मधुर बोल मैंने उनके अलावा कहीं से सुना ही नहीं। न जाने कितनी ही वसंत की रातें मैंने रंग रभस में बिताईं पर मैं अब तक उनका मर्म समझ नहीं पायी। लाख लाख प्रयास कर के मैंने अपने प्रियतम को अपने हृदय में सँजो कर रखा फिर भी मेरे मन की ज्वाला शांत नहीं हुई।
अर्थात प्रेम में तृप्त हो जाना संभव नहीं होता। कितने ही ऐसे रसिकजन हैं जो कि रस भोग करते हैं पर वो भी इसके वास्तविक मर्म को नहीं समझ पाते हैं। विद्यापति जी कहते हैं कि ऐसे तो लाखों लोग प्रेम करते हैं परंतु उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जो कि तृप्त हो सका हो।
विद्यापति के पद विशेष:-
1. लाख लाख, हिअ हिअ, तिल तिल, में अनुप्रास और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
2.सवनहि सूनल स्नुति, पथ परस में अनुप्रास अलंकार है।
3. मैथिली भाषा का प्रयोग हुआ है।
4. इस पद में विरह वर्णन है।
कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि ,
मूदि रहए दु नयान ।
कोकिल – कलरव , मधुकर – धुनि सुनि ,
कर देइ झाँपइ कान । ।
माधब , सुन-सुन बचन हमारा ।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि –
गुनि – गुनि प्रेम तोहारा । ।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ ,
पुनि तहि उठइ न पारा ।
कातर दिठि करि , चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल – धारा । ।
तोहर बिरह दिन छन –छन तनु छिन –
चौदसि – चाँद – समान ।
भनइ विद्यापति सिबसिंह नर-पति
लखिमादेइ – रमान । ।
विद्यापति के पद भावार्थ- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा’ पाठ-9 में संकलित कविता ‘पद’ से ली गयी हैं। इसके रचयिता श्री विद्यापति जी है। कवि ने नायिका की विरह अवस्था का वर्णन किया है।
विद्यापति के पद भावार्थ- इन पंक्तियों में नायिका की सखी नायक को उनकी अवस्था का वर्णन कर रही हैं।
वो कहती है कि कमल के समान सुंदर मुख वाली राधा की ऐसी दशा है कि वो सुंदर खिले हुए फूलों को देखना नहीं चाहती है , उन्हें देख कर वो अपनी आँखें बंद कर लेती है। कोयल की कुहू और भँवरों की गुंजन सुन कर अपने कान बंद कर लेती है। क्योंकि ये सब मिलन के प्रतीक हैं और विरह काल में उन्हें इन सब से बहुत पीड़ा होती है।
वो कृष्ण से कहती है कि माधव तुम मेरी बात सुनो, राधा तुम्हारे प्रेम को याद कर करके विरह की पीड़ा में दिन पर दिन दुर्बल होती जा रही है। कितनी बार तो वह जब धरती पर बैठ जाती है तो दोबारा उठ भी नहीं पाती है। वह व्याकुल होकर चारों तरफ तुम्हें ही ढूंढती रहती है और फिर तुमको वहाँ न पाकर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगते हैं।
तुम्हारे विरह में वो धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है बिल्कुल उस चंद्रमा के समान जो चौदस की रात को क्षीण हो जाता है। आगे कि पंक्तियों में विद्यापति जी राजा शिवसिंह की बड़ाई करते हुए कहते हैं कि वो विरह की पीड़ा को जानते हैं और इसलिए अपनी पत्नी लखीमाँ देवी के साथ रमन करते हैं।
विद्यापति के पद विशेष:-
1. धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ, कुसुमित कानन कमलमुखि में अनुप्रास अलंकार है।
2. हेरि-हेरि, छन –छन, सुन सुन, गुनि गुनि, में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
3. मैथिली भाषा का प्रयोग हुआ है।
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