मीरा के पद अर्थ सहती- Meera Ke Pad Class 11 Explanation

Table of Content:
1. मीरा का जीवन परिचय
2. मीरा के पद का सारांश 
3. मीरा के पद कविता
4.मेरे तो गिरधर गोपाल” भावार्थ
5.पग घुँघरू बांधि मीरां नाची” भावार्थ
6. मीरा के पद प्रश्न अभ्यास
7. Class 11 Hindi Aroh Chapters Summary

मीरा का जीवन परिचय- Meera Ka Jeevan Parichay

मीराबाई के जन्मकाल एवं जन्मस्थल के बारे में ज्यादा जानकारी एवं प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि मीरा का जन्म 1498ई में कुड़की गाँव के एक राजपरिवार में हुआ था। मीराबाई सगुण धारा की महान कवयित्री थीं।

श्री कृष्ण को समर्पित उनके काव्य आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। मीरा बाई के जीवन के बारे में कई  किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। इन सभी कथाओं से मीरा बाई की कृष्ण भक्ति एवं बहादुरी का पता चलता है। वो सामाजिक और पारिवारिक नियमों को नहीं मानती थीं।


वे कृष्ण को अपना पति मानती थीं और उनकी ही भक्ति में लीन रहती थीं। उनके पिता का नाम रत्न सिंह राठौड़ था , वे एक छोटे से राजपूत रियायत के शासक थे। मीरा अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं, वो उम्र में काफी छोटी थीं तभी उनके माता का देहांत हो गया था।

मीराबाई को धर्म, राजनीति , संगीत एवं प्रशासन जैसे विषयों में शिक्षा प्राप्त हुई। मीराबाई का पालनपोषण उनके दादा ने किया था , वो योद्धा होने के साथ-साथ भगवान विष्णु के उपासक थे इसलिए उनके घर में साधू-संतों का आना जाना लगा ही रहता था।

बचपन से ही मीराबाई को धार्मिक लोगों की संगति प्राप्त हुई थी। सन 1516 ई में मीराबाई का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज के साथ हो गया। भोजराज एक युद्ध में घायल हो गए थे इसी कारणवश सन 1521 ई में  उनकी मृत्यु हो गयी।

इसके कुछ ही वर्षों के पश्चात मीराबाई के श्वसुर एवं पिता मुग़ल शासक बाबर के साथ युद्ध में शहीद हो गए। उस समय की प्रथा के अनुसार उन्हें सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वह इसके लिए तैयार नहीं हुई ।

वो धीरे धीरे इस सांसारिक मोह – माया से विरक्त होती गईं और कृष्ण भक्ति में लीन होती चली गईं। वो कृष्ण की भक्ति में मंदिरों में जाकर नाचती गाती रहती थीं।

इससे उनके ससुराल के लोग रुष्ट रहते थे तथा उनपर बहुत अत्याचार भी करते थे और उन्हें विष देकर मारने की भी कोशिशें की गयीं। सन 1533 के लगभग वो मेड़ता चली गईं।

सन 1538 ई में वे ब्रज की तीर्थयात्रा पर चली गईं। फिर उसके करीबन एक साल के बाद ही वो वृन्दावन चली गईं  और कुछ वर्ष वहीं रहीं. फिर 1546 ई में वो द्वारका चली गईं।

उन्हें उस काल में विद्रोही माना जाता था क्योंकि उन्होंने न तो कभी राजकुमारी की तरह जीवन यापन किया न ही एक विधवा की तरह। अपने अधिकांश समय में वो या तो साधु संतों से मिलतीं या तो भक्ति पदों की रचना करतीं। कहा जाता है कि सन 1560 ई में वो द्वारका में कृष्ण की मूर्ति में समा गईं। 

मीरा के पद कविता का सारांश- Meera Ke Pad Poem Summary

यहाँ प्रस्तुत पहले पद में कवयित्री मीरा ने भगवान श्री कृष्ण के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त की हैं। उन्होंने श्री कृष्ण को अपना पति मान लिया है और वो उनकी सेवा एवं भक्ति में लगी रहती हैं।

वो लोक – लाज सब छोड़ कर मंदिरों में श्री कृष्ण के भजन गाती रहती हैं , साधु संतों की संगति में बैठी रहती हैं। कृष्ण की भक्ति रूपी बेल धीरे धीरे बड़ा होता जा रहा है।

जिस प्रकार दूध में मथानी डाल कर दही में से मक्खन निकाल लिया जाता है और छाछ अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार मीरा ने भी भगवान की भक्ति को अपना लिया है और सांसरिक मोह माया से खुद को अलग कर लिया है। 

                                दूसरे पद में मीरा ने कृष्ण भक्ति में डूबकर अमर होने की बात कही है। इन पंक्तियों में उन्होंने बताया है कि किस प्रकार वे पैरों में घुँघरू बांध कर कृष्ण भक्ति में लीन होकर नाच रही हैं।

लोग उन्हें पागल कहते हैं , कहते हैं कि कुल का नाम खराब कर दिया। लोग मीरा की जान लेना चाहते हैं विष का प्याला भेजते हैं जिसे वो हँसते हँसते पी जाती हैं। उनका मानना है कि अगर ईश्वरको सच्चे मन से चाहो तो वे सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। 

मीरा के पद कविता- Meera Ke Pad Poem

पद 1
मेरे तो गिरधर गोपाल , दूसरों न कोई
जा के सिर मोर मुकुट , मेरो पति सोई
छाँड़ि दयी कुल की कानि , कहा करिहै कोई ?
संतन ढिग बैठि- बैठि , लोक-लाज खोयी
अंसुवन जल सींचि – सींचि , प्रेम – बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी , आणंद – फल होयी
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी , जगत देखि रोयी
दासि मीरां लाल गिरधर ! तारो अब मोही 

पद 2
पग घुँघरू बांधि मीरां नाची ,
मैं तो मेरे नारायण सूं , आपहि हो गई साची
लोग कहै , मीरां भइ बावरी ; न्यात कहै कुल- नासी
विस का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरां हाँसी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर , सहज मिले अविनासी 

मीरा के पद कविता की व्याख्या- Meera Ke Pad Poem Line by Line Explanation

मेरे तो गिरधर गोपाल , दूसरों न कोई
जा के सिर मोर मुकुट , मेरो पति सोई
छाँड़ि दयी कुल की कानि , कहा करिहै कोई ?
संतन ढिग बैठि- बैठि , लोक-लाज खोयी
अंसुवन जल सींचि – सींचि , प्रेम – बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी , आणंद – फल होयी 

मीरा के पद व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता मीरा के पद से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में कवयित्री ने अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त किया है एवं सांसरिक मोहमाया में लिप्त लोगों के प्रति दुःख व्यक्त किया है। 

  इन पंक्तियों में मीरा बाई कहती हैं कि मेरे तो सिर्फ एक ही प्रियतम हैं जो कि  पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठाने वाले श्री कृष्ण हैं उनके अलावा मेरा और कोई भी नहीं है । जिनके सिर पर मोर पंख का मुकुट है वो ही मेरे पति हैं।

और मैंने अब कुल की मर्यादा को भी छोड़ दिया है , मेरे बारे में कौन क्या कहता है उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है । मैं तो लोक-लाज सब छोड़ कर साधु संतों के बीच बैठी रहती हूँ ।

वे आगे कहती हैं कि कृष्ण प्रेम रूपी जिस बेल को मैंने आंसुओं से सींचा है वो अब बहुत फैल चुकी है और अब उस बेल से मुझे बहुत आनंद की प्राप्ति हो रही है अर्थात , वो अब कृष्ण भक्ति में  पूरी तरह लीन हो चुकी हैं और उसमें अब उन्हें बहुत आनंद की प्राप्ति हो रही है। 

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी
दधि मथि घृत काढ़ि लियो, डारि दयी छोयी
भगत देखि राजी हुयी , जगत देखि रोयी
दासि मीरां लाल गिरधर ! तारो अब मोही 

मीरा के पद व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमरी पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता मीरा के पद से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में कवयित्री ने श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम का वर्णन किया है। 

  इन पंक्तियों में मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने दूध की मथनियां  बहुत ही प्रेम से विलोई हैं अर्थात उन्होंने अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेम को बहुत ही प्रेम से मथा है। दही को मथ कर उन्होंने घी निकाल लिया है और छाछ को छोड़ दिया है।

इस पंक्ति में घी कृष्ण प्रेम का प्रतीक है और छाछ सांसरिक मोहमाया का प्रतीक है। और दही से मीरा बाई का तात्पर्य उनके जीवन से है। इस प्रकार इस पंक्ति का अर्थ है कि अपने जीवन का विश्लेषण कर के उन्होंने कृष्ण भक्ति को पा लिया है सांसारिक मोहमाया को छोड़ दिया है।

आगे की पंक्तियों में वे कहती हैं कि जब वो भगवान की भक्ति करते हुए लोगों को देखती हैं तो उन्हें बहुत अच्छा लगता है परंतु जब वो सांसरिक मोहपाश में लिप्त लोगों को देखती हैं तो उन्हें बहुत पीड़ा होती है।

वो कहती हैं कि हे कृष्ण मैं तो तुम्हारी दासी हूँ , और अब तुम ही हो जो मुझे इस संसार से पार लगाओगे । 

पग घुँघरू बांधि मीरां नाची ,
मैं तो मेरे नारायण सूं , आपहि हो गई साची
लोग कहै , मीरां भइ बावरी ; न्यात कहै कुल- नासी
विस का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरां हाँसी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर , सहज मिले अविनासी 

मीरा के पद व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमरी पाठ्यपुस्तक में संकलित कविता मीरा के पद से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में मीरा बाई जी अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेम में अमर होने की बात कह रही हैं। 

  मीरा कहती हैं कि वे कृष्ण की भक्ति में इतना रम गयी हैं कि पैरों में घुँघरू बांध कर अपने प्रिय कृष्ण की मूर्ति के सामने नाच रही है। मीरा ने स्वयं को अपने आराध्य श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया है और वो इससे बिलकुल पवित्र और सच्ची हो गई हैं।

लोग उन्हें देख कर बावली कहते हैं , कहते हैं कि मीरा ने कुल का नाश कर दिया है क्योंकि वे राजमहल की सारी सुख सुविधाओं को छोड़ कर फकीरों की तरह घूमती रहती हैं।

वो सारा समय या तो मंदिरों में या फिर साधु संतों के बीच बैठी रहती हैं जो कि राजघराने की कुलवधू के आचरण के विपरीत है। लोग कहते हैं कि इसकी मति भ्रष्ट हो गयी है।

यह सब देखकर मीरा जी के देवर राणा ने उनको विष भेज दिया ताकि उनकी मृत्यु हो जाए और उनसे सबको छुटकारा मिल जाए । उस विष के प्याले को मीरा बाई ने पी लिया और फिर वो हंसने लगी कि ये कैसे मूर्ख लोग हैं, इनको इतना भी नहीं पता कि कृष्ण की भक्ति में इतनी शक्ति है कि इस विष का मुझपर कोई भी असर नहीं होगा।

जब उनपर विष का असर नहीं हुआ तो उन्हें ऐसा लगा जैसे कि उन्हें अविनाशी श्री कृष्ण के दर्शन हो गए । वे कहती हैं कि मेरे प्रभु श्री कृष्ण तो इतने सीधे हैं कि भक्तों को सहज ही दर्शन दे देते हैं।

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