Table of Content:
1. केदारनाथ सिंह का जीवन परिचय
2. बनारस कविता का सारांश
3. बनारस कविता
4. बनारस कविता प्रश्न अभ्यास
5. Antra Class 12 Hindi All Chapter
केदारनाथ सिंह का जीवन परिचय- Kedarnath Singh Ka Jeevan Parichay
कवि केदारनाथ सिंह का जन्म बलिया जिले में माना जाता है। इन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से हिंदी में एम.ए.की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब विधान विषय पर पीएचडी किया था।
इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से मनुष्य को यह बताने का प्रयास किया है कि प्रकृति के बिना जीवन कुछ भी नहीं है।
प्रमुख रचनाएं-छायावाद और आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान का विकास इनकी आलोचनात्मक पुस्तक है। इनके कुल सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। केदारनाथ सिंह जी कवि अज्ञेय के तीसरे तारसप्तक कवि थे।
पुरस्कार- ‘अकाल में सारस’ कृति के कारण कवि केदारनाथ सिंह को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी दिया गया था।
बनारस कविता का सारांश- Banaras Poem Summary
बनारस कविता कवि केदारनाथ सिंह द्वारा रचित एक ऐसी कविता है, जिसको लेकर काफी विवाद हुआ था। एक ओर जहां कवि पूरे बनारस का चित्रण करते हैं जैसे- घाट, जल, नाव, शव, आदि वहीं भिखारी का वर्णन करते हुए कवि बनारस के अतीत की खोज करते है।
प्रतीकों के माध्यम से कवि ने बनारस शहर के रहस्यों को खोला है। कहा जाता है कि यह कविता कवि केदारनाथ सिंह जी का असफ़ल काव्य है।
बनारस कविता- Banaras Poem
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
बनारस कविता की व्याख्या- Banaras Poem Line by Line Explanation
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है।
भावार्थ- केदारनाथ सिंह जी ने इन पंक्तियों में वसन्त रूपी प्रसन्नता के आगमन का निरूपण किया है। कवि बनारस में ऋतु परिवर्तन के साथ होने वाले बदलावों का विवेचन करते हुए कह रहे हैं कि बनारस में वसन्त का आगमन अचानक होता है, जिसके लिए शहर पहले से तैयार नहीं होता है।
वसन्त आने के साथ ही अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए ख्यातिप्राप्त लहरतारा और मडुवाडीह में विशेष रूप से गतिविधियां बढ़ जाती हैं और सम्पूर्ण शहर भावी समृद्धि व प्रसन्नता हेतु लालयित हो जाता है।
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
भावार्थ- इन पद्यांश में आकांक्षा पूर्ण होने का भाव तिरोहित है। कवि कह रहे हैं कि जिसको प्राप्ति की इच्छा है वह उत्सकुता से लेने की प्रतीक्षा करने लगता है और जो प्रदाता है वह प्रदान करने लगता है।
इस परिवेश में व्यक्ति जब प्रसिद्ध दशाश्वमेध घाट पर जाता है तब उसे अनुभव होता है कि सिर्फ मनुष्य ही नहीं वरन पशु व निर्जीव पत्थर भी परिवर्तन की अनुभूति कर रहे हैं। सीढ़ियों में बैठे बंदरों की आंखों में नमी है। और खाली पात्र लिए भिक्षुओं के चेहरे में चमक है और वे अब आशान्वित हैं।
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़।
भावार्थ- इन पंक्तियों में कवि अभिव्यक्त कर रहे हैं कि भिखारियों के पात्र में धन, अन्न इत्यादि भरना उनके लिए वसंत के समान ही है। भिक्षुओं का जीवन निर्वहन इन्ही कटोरों की रिक्तता और भरे होने पर निर्भर करता है।
कवि कह रहे हैं बनारस का जीवन चक्र भी कुछ इसी प्रकार से है, जो कि इच्छाओं की पूर्ती होने के साथ शुरू होता है और शाम तक जलते शवों के समान खाली होता जाता है। अर्थात जीवन का प्रारंभ और अंत बनारस के घाटों में स्पष्ट दिखाई देता है।
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज़ जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाँव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से।
भावार्थ- कवि इस काव्यांश में बनारस के जीवन की स्थिरता व मद्धम गति को निरूपित कर रहे हैं। कवि कह रहे हैं कि बनारस की प्रकृति धीमे गति के जीवन व सुकून से समृद्ध है। यहां मनुष्य ही नहीं बल्कि पर्यावरण व कण-कण धीमी गति से बढ़ता है।
यहाँ धूल धीरे से उड़ती है, लोग किसी बेतहाशा दौड़ और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के भागीदार नहीं हैं, उन्हें कोई जल्दी नहीं है, वे धीरे-धीरे चलते हैं। मन्दिर के घण्टों की ध्वनि धीमी और मधुर है, शाम भी मद्धम गति से होती है और सुकून से भरी हुई है।
कवि कहते हैं कि यह धीमापन ही इस शहर की प्रवृत्ति तथा खूबसूरती है। यह धीमापन बनारस को स्थिर किये हुए है और एकसूत्र में पिरोए हुए है। इस शहर में कुछ गिरता नहीं अर्थात यहाँ पतन नहीं है, परिवर्तन नहीं है, हर वस्तु, विचार अपने मूल रूप में सुरक्षित है। गंगा वहीं है, नाव वहीं है और तुलसीदास जी खड़ाऊं भी एक ही स्थान से लोगों को भक्ति की प्रेरणा दे रही है।
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है
भावार्थ- कवि कविता के इस अंश में बनारस के दार्शनिक पक्ष को उजागर कर रहे हैं। केदारनाथ जी कह रहे हैं ढलती शाम के समय आरती की रोशनी में वाराणसी की बनावट अलौकिक प्रतीत होती है।
यह शहर आधा जल में अर्थात गंगा की संस्कृति से ओतप्रोत, आधा मन्त्र में यानि भक्ति में डूबा हुआ, आधा शंख में यानि वेद/वेदांग की शिक्षा में रचा बसा और आधा शव में अंतिम सत्य का दर्शन कराता तथा फूल श्रृंगार को व आधा नींद में डूबा बनारस शहर की बेफिक्री दर्शाता है। वास्तव में बनारस के गूढ़ दर्शन किए जाएं, तो वह आधा है और आधा नहीं। बनारस सतत पूर्णता की ओर अग्रसर है, पूर्ण नहीं।
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तम्भ के
जो नहीं है उसे थामे है
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्तम्भ
आग के स्तम्भ
और पानी के स्तम्भ
धुऍं के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तम्भ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल मे
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
भावार्थ- इस काव्यांश में कवि बनारस की आत्मनिर्भरता, दृढ़ता व सहयोगी भावना को प्रदर्शित किया गया है।
केदारनाथ जी का मानना है कि बनारस में जो लोग हैं वे स्वयं के बल पर खड़े हैं, आत्मसम्मान के साथ खड़े हैं।
कवि मृत व्यक्तियों को इंगित करता हुए कह रहे हैं जो आज नहीं हैं उनको भी प्रकृति राख, प्रकाश, धुएं, सुगन्ध व हाथों से सहारा दिए हुए हैं।
कवि कह रहे हैं युगों-युगों से
बनारस गंगा पर एक टांग पर खड़े साधु के समान साधनारत है तथा बिना किसी लक्षित सूर्य की आराधना करते हुए जल अर्पित कर रहा है, जिसका दूसरा पैर कहाँ है उसे स्वयं नहीं पता अर्थात भौतिक चिंताओं से दूर सिर्फ प्रकाश की कामना में लीन है बनारस।
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