Table of content
- हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय
- आत्मपरिचय कविता का सारांश
- आत्मपरिचय कविता
- आत्मपरिचय कविता की व्याख्या
- आत्मपरिचय कविता प्रश्न अभ्यास
- दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
- Class 12 Hindi Aroh Chapters Summary
Harivansh Rai Bachchan Ka Jeevan Parichay – हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय
हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 ई. को इलाहाबाद में हुआ था। ये हिन्दी कविता के उत्तर छायावादी काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवं माता का नाम सरस्वती देवी था। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा कायस्थ विद्यालय से प्राप्त की, जहां इन्होंने पहले उर्दू और फिर हिन्दी में अपनी शिक्षा ग्रहण की। आगे चलकर इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया और अंग्रेजी में एम.ए. किया।
उसके बाद हरिवंश राय बच्चन जी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. पूरी की, जिसके लिए इनके शोध का विषय था “अंग्रेज़ी साहित्य के महान कवि डब्ल्यू.बी.यीट्स की कवितायें”। 19 वर्ष की आयु में इनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ। किन्तु कुछ वर्षों के पश्चात श्यामा बच्चन जी का एक गंभीर बीमारी के कारण देहांत हो गया। कुछ वर्षों के बाद बच्चन जी ने तेजी बच्चन जी से विवाह कर लिया।
हरिवंश राय बच्चन ने अपने जीवन काल में बहुत-सी कविताएं लिखी जिनमें से ‘मधुशाला’ ‘निशा निमंत्रण’ ‘मधुबाला’ ‘मधुकलश’ इत्यादि उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। उनकी ‘दो चट्टानें’ को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। सन 1968 में उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार‘ एवं ‘एफरो एशियन सम्मेलन’ के ‘कमल पुरस्कार ‘ से भी सम्मानित किया गया।
इसके अलावा उन्हें ‘पद्मभूषण’ एवं ‘सरस्वती सम्मान‘ भी प्रदान किया गया था। इन्होंने ‘भारत सरकार’ के विदेश मंत्रालय में बतौर ‘हिन्दी विशेषज्ञ’ कार्य भी किया। हरिवंश राय बच्चन पर अनेक पुस्तकें लिखी गयी हैं। सन् 2003 में मुंबई में इनकी मृत्यु हो गयी।
आत्मपरिचय कविता का सारांश – Aatmparichay Poem Summary
प्रस्तुत कविता में कवि प्रकृति के दैनिक परिवर्तन के संदर्भ में प्राणी वर्ग के हृदय में चल रही उथल -पुथल को समझने का प्रयास कर रहे हैं। किसी प्रिय विषय से मिलन का आश्वासन हो, तो हमारे प्रयासों में गति आ जाती है। अन्यथा हम शिथिलता की ओर बढ़ते चले जाते हैं।
कवि का मानना है कि दुनिया को जानना तो फिर भी आसान है पर स्वयं का ज्ञान होना अत्यंत कठिन। समाज व्यंग्य करता है, ताने कसता है फिर भी मनुष्य समाज से अलग रह नहीं पाता। समाज के बीच ही उसे अपना आस्तित्व नज़र आता है।
कवि कहता है कि दुनिया का और मेरा संबंध प्रीति कलह का है। इस एक वाक्य में सम्पूर्ण कविता का सार छुपा हुआ है। दुनियादारी को छोड़ कर अपना जीवनयापन कर पाना संभव नहीं है। कवि को सांसारिक कठिनाइयों से तकलीफ़ तो हो रही है, पर वो इसी कष्ट में प्रसन्न है। संसार से मिलने वाले स्नेह या क्रोध का उन पर कोई असर नहीं होता है। वो तो बस वही करते हैं, जो उनके हृदय को स्वीकार्य है।
कवि के लिए उनके दुखों का खंडहर सुखों के महलों से कहीं ज्यादा सुंदर है। कवि की प्रवृत्ति संतोष किस्म की है। वह हर आशा- निराशा में प्रसन्न रहता है। कवि अपनी व्यथा, क्रोध, भावनाएँ सब कुछ अपने शब्दों के द्वारा व्यक्त करता है। समाज इन शब्दों को गीत समझकर उन पर झूमता है नाचता है।
आत्मपरिचय कविता – Aatmparichay Poem
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव्य-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
आत्मपरिचय कविता का भावार्थ – Aatmparichay Poem Explanation
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
आत्मपरिचय प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ पाठ-1 कविता ‘आत्मपरिचय’ से ली गई हैं। इस कविता के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी है। कवि अपने जीवन में हमेशा अपने मन की सुनता है और वो संसार की मान्यताओं को नहीं मानता।
आत्मपरिचय भावार्थ – इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सांसरिक गतिविधियों एवं दायित्वों के बावजूद उनके जीवन में प्रेम भरा हुआ है। जैसे किसी ने उनके सितार रूपी मन को छूकर झंकृत कर दिया हो और उनके जीवन में संगीत भर दिया हो। यही संगीत उनके प्रेम भरे जीवन का और उनकी साँसों का कारण है।
कवि आगे कहते हैं कि वो प्रेम रूपी मदिरा का सेवन किया करते हैं। वो संसार की परवाह नहीं करते हैं। संसार तो उनको पूछता है, जो उनके द्वारा निश्चित किए गए मापदंडो पर चलते हैं और उनका गुणगान करते हैं। परंतु कवि तो वो है, जो अपनी मान्यताओं पर चलता है और केवल अपनी मन की सुनता है।
आत्मपरिचय विशेष-
1. ‘स्नेह-सुरा’ और ‘सांसों के तार’ में रूपक अलंकार है।
2. ‘जग जीवन’ में अनुप्रास अलंकार है।
3. खड़ी बोली भाषा का प्रयोग हुआ है।
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव्य-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!
आत्मपरिचय प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ पाठ-1 कविता ‘आत्मपरिचय’ से ली गई हैं। इस कविता के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी है। कवि अपना जीवन प्रेम और कल्पनाओं में बिताते हैं।
आत्मपरिचय भावार्थ – इन पंक्तियों के माध्यम से कवि हरिवंश राय बच्चन कहना चाहते हैं कि वो अपनी मन की भावनाओं को दुनिया के सामने रख देते हैं। उन्हें जो सुख और प्रेम रूपी उपहार मिले हैं, उसे वो हमेशा अपने साथ रखते हैं और याद भी रखते हैं। उन्हें यह प्रेम विहीन संसार अधूरा लगता है। इसीलिए उन्हें ये संसार पसंद नहीं आता है। वो तो स्वयं एक सपनों का संसार लिए फिरते हैं, जिसमें प्रेम एवं कल्पनाएँ हैं।
वो अपने हृदय में प्रेम, अभिव्यक्ति एवं स्वच्छंदता रूपी अग्नि जलाए रखते हैं और उसकी तपिश में जलते रहते हैं। जीवन में चाहे सुख आए या दुख वो तो बस अपनी ही धुन में मग्न रहते हैं। यह संसार तो जीवन की आपदाओं से निजात पाने की कोशिश में लगा रहता है किन्तु कवि तो बस दुनियादारी रूपी लहरों पर मस्त होकर बहते रहते हैं।
आत्मपरिचय विशेष-
1. ‘भव्य-सागर’ और ‘भव मौजों’ में रूपक अलंकार है।
2.खड़ी बोली भाषा का प्रयोग हुआ है।
3. इसमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
आत्मपरिचय प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ पाठ-1 कविता ‘आत्मपरिचय’ से ली गई हैं। इस कविता के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी है। इसमें कवि ने नादान और समझदार दो तरह के लोगों का वर्णन किया हैं। और साथ ही कवि अपनी प्रेमिका का वर्णन करते है।
आत्मपरिचय भावार्थ – इन पंक्तियों में कवि कहता है कि उनके मन पर जवानी का पागलपन छाया हुआ है। उस पागलपन पर उदासी का साया है। कवि को किसी प्रिय की याद सताती है, तो बाहर से तो वो काफी प्रसन्न दिखता है, परंतु अंदर से उसे वह याद व्याकुल कर जाती है।
कवि आगे कहते हैं कि सत्य जानने का प्रयास तो सबने किया पर कोई आज तक जीवन सत्य जान न पाया। जहाँ पर समझदार लोग हैं, नादान लोग भी तो वहीं हैं। ऐसे लोग मूर्ख ही तो हैं जो सांसारिक भोग विलास के पीछे भाग रहे हैं। कवि कहते हैं कि मैं अब तक सीखे गए ज्ञान को भूलना सीख रहा हूँ और अपने हृदय की सुनना सीख रहा हूँ।
आत्मपरिचय विशेष-
1. ‘सब सत्य’ में अनुप्रास अलंकार है।
2. ‘उन्मादों में अवसाद’ में विरोधाभास अलंकार है।
3. खड़ी बोली भाषा का प्रयोग हुआ है।
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ!
आत्मपरिचय प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ पाठ-1 कविता ‘आत्मपरिचय’ से ली गई हैं। इस कविता के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी है। इसमें कवि स्वयं को इस संसार से अलग मानता है। कवि जो सोचता है संसार तो उसकी कल्पना से बहुत अलग है।
आत्मपरिचय भावार्थ – इन पंक्तियों में कवि कहना चाहता है कि मैं कुछ और सोचता हूँ, संसार में कुछ और चलता है इसलिए मुझमें और संसार में कोई संबंध संभव ही नहीं है। मेरी कल्पनाओं का संसार तो कुछ और ही है, जिसे मैं रोज़ अपने सपनों में बनाता हूँ और फिर मिटा देता हूँ। पूरा संसार पृथ्वी पर धन – सम्पदा जोड़ रहा है, अपना पूरा जीवन भोग विलास के पीछे लगा रहा है। ऐसी सांसारिक वस्तुओं से भरी धरती को मैं हर कदम पर ठोकर मारता हूँ।
कवि कहते हैं कि मेरे आंसुओं में भी प्रेम है। ठंडे शब्दों में भावनाओं की तपिश है, क्रोध की आग है। कवि का मन प्रेम में निराशा के कारण खंडहर जैसा हो गया है फिर भी वह उसे राजा महाराजाओं के महलों से कहीं बेहतर मानता है। उस खंडहर के एक हिस्से को कवि अपने सीने से लगाए फिरता है।
आत्मपरिचय विशेष-
1. ‘और’ शब्द की आवृत्ति में यमक अलंकार है।
2. कहाँ का और जग जिस में अनुप्रास अलंकार है।
3. बना-बना में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4.खड़ी बोली भाषा का प्रयोग हुआ है।
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
आत्मपरिचय प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ पाठ-1 कविता ‘आत्मपरिचय’ से ली गई हैं। इस कविता के रचयिता हरिवंश राय बच्चन जी है। इसमें कवि कहते हैं कि मेरी भावनाओं को लोग केवल एक गीत ही मानते हैं। उस गीत में छिपे कवि ने जीवन के दुःख , निराशा को लोग नहीं समझते।
आत्मपरिचय भावार्थ – इन पंक्तियों में कवि कहना चाहते हैं कि प्रेम में निराशा की पीड़ा से मेरा मन व्याकुल होकर रोता है, अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोता है और समाज उसे केवल एक गीत मान बैठा है।
मेरे मन की व्यथा जब कविता के माध्यम से बाहर आती है, तो संसार उसे मात्र एक छंद मान लेता है। मैं तो बस एक दीवाना हूँ, जो प्रेम में अपनी सुध – बुध खो बैठा है और अपने मन की व्यथा को गीत के माध्यम से व्यक्त कर रहा है, तो फिर ये समाज मुझे कवि क्यों मान बैठा है।
ये समाज मुझे केवल एक दीवाने के रूप में स्वीकार क्यों नहीं करता। मैं तो दीवानों की तरह फिरता हूँ, मेरे जीवन में जो मदहोशी शेष रह गयी है, उसे ही लिए घूमता हूँ। जिसको सुनकर संसार झूमता है, नाचता है, वो तो मेरी मदहोशी है जिसको दुनिया गीत समझ बैठी है। मैं तो बस अपनी मदहोशी का संदेश लेकर घूमता हूँ।
आत्मपरिचय विशेष-
1. कवि कहकर, झूम झुमके, क्यों कवि में अनुप्रास अलंकार है।
2. संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।
3. खड़ी बोली भाषा का प्रयोग हुआ है।
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