पथिक कविता रामनरेश त्रिपाठी- Pathik Poem in Hindi Class 11

Table of Content:
1. रामनरेश त्रिपाठी का जीवन परिचय
2. पथिक कविता का सारांश 
3. पथिक कविता
4. पथिक कविता का भावार्थ
5. पथिक कविता प्रश्न अभ्यास
6. Class 11 Hindi Aroh Chapters Summary

रामनरेश त्रिपाठी का जीवन परिचय- Ramnaresh Tripathi Ka Jeevan Parichay 

रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 4 मार्च 1881 ई को जौनपुर, उत्तर प्रदेश के एक गाँव कोइरीपुर  में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदत्त त्रिपाठी था। रामदत्त त्रिपाठी एक परम धार्मिक ब्राह्मण थे। वे भारतीय सेना सूबेदार रह चुके थे।

वे धार्मिक एवं कर्तव्यनिष्ठ थे, राष्ट्रभक्ति उनमें कूट कूट के भरी थी। ये सारे गुण रामनरेश त्रिपाठी को विरासत में मिले थे। वे निर्भीक थे एवं आत्मविश्वास से भरे हुए थे।


उन की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के एक स्कूल में हुई , हाई – स्कूल की पढ़ाई के लिए वे जौनपुर जिले के एक स्कूल में गए पर वो हाई स्कूल की शिक्षा पूरी नहीं कर सके परंतु उन्होने स्वाध्याय से हिन्दी, अँग्रेजी , बंगला एवं उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया।

जब वे 18 वर्ष के थे तब पिता से उनकी अनबन हो गयी और वे कलकत्ता चले गए। वे छायावाद पूर्व की खड़ी बोली के एक महान कवि थे। इन्होंने देश-प्रेम एवं प्रेम सम्बन्धों के विषय पर कविताओं की रचना की।

मिलन, पथिक, मानसी, स्वप्न आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। इन्होंने सौराष्ट्र से गुवाहाटी एवं कश्मीर से कन्याकुमारी घूम घूम कर लोक गीतों का चयन किया एवं ग्रामगीत की रचना की। कविताओं के अलावा रामनरेश जी ने नाटक, उपन्यास, आलोचना आदि भी लिखी हैं।

वे बाल-साहित्य के जनक माने जाते हैं। उन्होंने कई वर्षों तक बानर नामक बाल पत्रिका का सम्पादन किया जिसमें मौलिक कहानियाँ, शिक्षाप्रद कहानियाँ एवं प्रेरक प्रसंग आदि प्रकाशित होती थीं। 

स्वप्न के लिए इन्हें हिदुस्तान अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। 16 जनवरी 1962 में प्रयाग में इनकी मृत्यु हो गयी। 

पथिक कविता का सारांश –  Pathik Poem Summary

प्रस्तुत अंश पथिक खंडकाव्य का अंश है। इस काव्यान्श में पथिक अर्थात यात्री की मनोस्थिति एवं प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। वह दुनिया के दुःखों से विरक्त हो चुका है।

वह प्रकृति के सौन्दर्य पर मुग्ध है और यहीं बसना चाहता है। किसी साधु से संदेश लेकर देशभक्ति का संकल्प लेता है। राजा द्वारा मृत्युदंड मिलने के बाद भी समाज में उसकी कीर्ति बनी रहती है। 

    सागर के किनारे खड़ा पथिक उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो रहा है। वह बादलों पर बैठ कर विचरण करना चाहता है। लहरों पर बैठकर समुद्र का कोना कोना देखना चाहता है।

समुद्र तल पर सूर्य की किरणों का सौन्दर्य निहार रहा है। वह समुद्र की गर्जना पर मुग्ध हो रहा है। चंद्रमा की रोशनी एवं टिमटिमाते तारों की सुंदरता को देख रहा है।

चहकते हुए पक्षी, महकते हुए फूल, बरसते हुए बादल सब उसे मोहित कर रहे हैं। इस सौन्दर्य को देख कर वह भावुक हो जाता है और आँसू बहाने लगता है। वह इस अद्भुत सौन्दर्य को पाना चाहता है।

इस प्रेम के कारण वह अपनी पत्नी के प्रेम से दूर होता हुआ महसूस कर रहा है। यह रचना स्वच्छंदतावादी है , इसमें प्रेम, भाषा एवं कल्पना का अद्भुत संयोग दिखता है।

पथिक कविता –  Pathik Poem

प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही हैं नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूं यही चाहता मन है।

रत्नाकर गजन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता हैं। 
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के- 
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरू जी भर के। 

निकल रहा हैं जलनिधि-तल पर दिनकर-बिब अधूरा।
कमला के कचन-मदिर का मानों कात कैंगूरा।
लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी।

निर्भय, दृढ़, गभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुदर, अति सुदर हैं। 
कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?
अनुभव करो हृदय से, ह अनुराग-भरी कल्याणी।

जब गभीर तम अद्ध-निशा में जग को ढक लता है।
अतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता हैं।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गगा के मधुर गीत गाता है।

उसमें ही विमुग्ध हो नभ में चद्र विहस देता है। 
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्पों से तन को सज लेता है। 
पक्षी हर्ष सभाल न सकतें मुग्ध चहक उठते हैं। 
फूल साँस लेकर सुख की सनद महक उठते हैं-

वन, उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता हैं, नयन नीर झड़ते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहरी।।  

कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल हैं यह प्रेम-कहानी। 
जी में हैं अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर हैं। 
अहा! प्रेम का राज्य परम सुदर, अतिशय सुदर हैं।। 

पथिक कविता की व्याख्या–  Pathik Poem Summary 

प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही हैं नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूं यही चाहता मन है।

रत्नाकर गजन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता हैं। 
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के- 
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरू जी भर के। 

पथिक कविता की व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग – 1 में संकलित कविता पथिक से उद्धृत हैं। इनके रचयिता हैं श्री रामनरेश त्रिपाठी जी। इस कविता में पथिक सांसरिक दुःखों से व्यथित है और यहीं प्रकृति की गोद में बस जाना चाहता है। 

    इन पंक्तियों में कविता का नायक पथिक कहता है कि सूर्य के समक्ष बादलों का समूह हर क्षण नए नए एवं रंग-बिरंगे रूप बना कर नृत्य कर रही हैं। नीचे नीला समुद्र है ऊपर नीला आकाश है। यह दृश्य बहुत ही मनोहारी है , नायक इस दृश्य पर मुग्ध है और वह बादलों पर बैठ कर आकाश में विचरण करना चाहता है। 

   नायक कहता है कि समुद्र गर्जन कर रहा है, पर्वत से आने वाली सुगंधित हवाएँ बह रही हैं। पथिक कहता है कि हे प्रिए यह हौसला मेरे हृदय में भरा रहता है और मैं समुद्र की लहरों पर बैठ कर उसके कोने कोने में जी भर के घूमना चाहता हूँ। 

निकल रहा हैं जलनिधि-तल पर दिनकर-बिब अधूरा।
कमला के कचन-मदिर का मानों कात कैंगूरा।
लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी।

निर्भय, दृढ़, गभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुदर, अति सुदर हैं। 
कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?
अनुभव करो हृदय से, ह अनुराग-भरी कल्याणी।

पथिक कविता की व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग – 1 में संकलित कविता पथिक से उद्धृत हैं। इनके रचयिता हैं श्री रामनरेश त्रिपाठी जी।

इस कविता में पथिक सांसरिक दुःखों से व्यथित है और यहीं प्रकृति की गोद में बस जाना चाहता है। इन पंक्तियों में कवि ने पथिक के प्रकृति प्रेम को दर्शाया है। 

  पथिक कहता है कि सूर्योदय हो रहा है और समुद्र के तल पर सूर्य का आधा बिम्ब दिख रहा है। अर्थात आधा सूर्य समुद्र के अंदर एवं आधा सूर्य समुद्र के ऊपर दिखाई दे रहा है, और वो ऐसा लग रहा है मानो माता लक्ष्मी के स्वर्ण मंदिर का गुंबद हो।

समुद्रतल पर पड़ती हुई सूर्य की रोशनी को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो लक्ष्मी की सवारी को धरती पर उतारने के लिए स्वयं समुद्र ने प्यारी सी सोने की सड़क बना दी हो। 

 आगे पथिक कहता है कि समुद्र अत्यंत निडर, गंभीर एवं मजबूत भाव से गर्जना कर रहा है। लहरों के ऊपर लहरें आ रही हैं जो कि अत्यंत सुंदर दिख रही हैं।

पथिक इन सब को देख कर मुग्ध हुआ जा रहा है और अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम इस सौन्दर्य को अपने हृदय से अनुभव करो और बताओ कि कोई भी प्राणी इससे ज्यादा सुख और कहाँ पा सकता है। 

जब गभीर तम अद्ध-निशा में जग को ढक लता है।
अतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता हैं।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गगा के मधुर गीत गाता है।

उसमें ही विमुग्ध हो नभ में चद्र विहस देता है। 
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्पों से तन को सज लेता है। 
पक्षी हर्ष सभाल न सकतें मुग्ध चहक उठते हैं। 
फूल साँस लेकर सुख की सनद महक उठते हैं-

पथिक कविता की व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग – 1 में संकलित कविता पथिक से उद्धृत हैं। इनके रचयिता हैं श्री रामनरेश त्रिपाठी जी।

इस कविता में पथिक सांसरिक दुःखों से व्यथित है और यहीं प्रकृति की गोद में बस जाना चाहता है। इन पंक्तियों में कवि ने पथिक के प्रकृति प्रेम का वर्णन किया है। 

    पथिक कहता है कि जब आधी रात हो जाती है तब गहरा अंधेरा समस्त संसार को ढक लेता है और अन्तरिक्ष रूपी छत पर तारे बिखरा देता है । तब धीमी गति से संसार का स्वामी मुस्कुराते हुए आता है और समुद्र के तट पर खड़े होकर आकाशगंगा के मीठे मीठे गीत गाता है। 

     ये सब देख सुन कर आकाश में चन्द्रमा भी मुग्ध होकर हंस देता है। वृक्ष भी विभिन्न प्रकार के फूल – पत्तियों से खुद को सजा लेता है । पक्षी भी अपनी भावनाओं को संभाल नहीं पाते हैं एवं मुग्ध होकर चहक उठते हैं। पुष्प भी सांस लेने लगते हैं और सुख से महकने लगते हैं। 

वन, उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता हैं, नयन नीर झड़ते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहरी।।  

कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल हैं यह प्रेम-कहानी। 
जी में हैं अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर हैं। 
अहा! प्रेम का राज्य परम सुदर, अतिशय सुदर हैं।। 

पथिक कविता की व्याख्या: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक आरोह भाग – 1 में संकलित कविता पथिक से उद्धृत हैं। इनके रचयिता हैं श्री रामनरेश त्रिपाठी जी।

इस कविता में पथिक सांसरिक दुःखों से व्यथित है और यहीं प्रकृति की गोद में बस जाना चाहता है। इन पंक्तियों में कवि ने पथिक के प्रकृति प्रेम का वर्णन किया है। 

    पथिक कहता है कि प्रकृति की प्रेम लीला से जंगल,  बगीचे, पर्वत, समुद्रतल, वनस्पति सब पर बादल बरसने लगते हैं। इन दृश्यों को देखकर पथिक का मन भावुक हो उठता है और उसकी आँखों से आँसू गिरने लगते हैं।

वह अपनी प्रिय को संबोधित करते हुए कहता है कि इस मीठी कहानी को पढ़ो जो कि प्रकृति ने लहरों, समुद्रतट, पेड़ों, तिनकों, पर्वत, आकाश, बादल, सूर्यप्रकाश पर लिखी हैं। 

  पथिक कहता है कि यह प्रेम- कहानी कितनी प्यारी एवं उज्ज्वल है, मेरा मन करता है कि मैं इस प्रेम-कथा का एक अक्षर बन जाऊँ और विश्व की आवाज़ बनूँ ।

यह दृश्य कितना स्थिर है पवित्र है शान्तिदायक है सुखदायक है। प्रकृति के इस दृश्य में आनंद का प्रवाह होता है। यह प्रेम का राज्य है और यह अत्यंत सुंदर है।

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