Ramchandrika by Keshav Das | रामचन्द्रचंद्रिका अर्थ सहित

Table of Content
1. केशवदास का जीवन परिचय
2. रामचन्द्रचंद्रिका कविता का सारांश
3. सरस्वती वंदना छंद की व्याख्या
4. पंचवटी-वन-वर्णन छंद की व्याख्या
5. अंगद छंद की व्याख्या
6. रामचन्द्रचंद्रिका प्रश्न अभ्यास
7. 
Class 12 Hindi Antra All Chapter

केशवदास का जीवन परिचय- Keshav Das Ka Jeevan Parichay

कवि केशवदास का पूरा नाम केशवदास मिश्रा था। कवि  केशवदास हिंदी साहित्य के रीति काल के प्रसिद्ध कवियों में से एक हैं रीति काल में उन्हें रस कवि के रूप में जाना जाता था 

केशवदास का जन्म: कवि केशव दास जी का जन्म बेतवा नदी के तट पर सन 1555 में ओरछा नगर में हुआ था


कवि केशवदास जी को सभी विषयों का ज्ञान था इनके विषय में कहा जाता है कि ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिनसे यह परिचित नहीं है।

ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिसके बारे में इनको ज्ञान प्राप्त नहीं है तभी तो साहित्य से लेकर संगीत तक, धर्म शास्त्र से लेकर राजनीति तक एवं ज्योतिष से लेकर विज्ञान तक हर चीज का ज्ञान उन्हें था शायद इन्हीं सब विषयों के कारण वे आज भी लोकप्रिय है।

उपाधि: कवि केशवदास जी को आचार्य की उपाधि प्राप्त हुई थी। इनको संस्कृत का ज्ञान तो था ही मगर हिंदी का भी प्रचुर मात्रा में ज्ञान था। जितना योगदान इन्होंने संस्कृत को दिया उतना ही योगदान उन्होंने हिंदी साहित्य में भी दिया था 

साहित्य में उनका योगदान: केशव दास जी का हिंदी साहित्य में प्रवेश रीतिकाल के समय हुआ था जब रीतिकाल में उन्होंने प्रवेश किया था। उससे पहले रीतिकाल में कुछ भी अच्छा नहीं लिखा गया था।

मगर जब से केशव दास जी ने अपने कदम रीतिकाल में रखा, तब से रीतिकाल की कविताएं अच्छी आने लगी और उनकी कविताओं के कारण रीतिकाल काफी प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित बनकर हम सभी के समक्ष रह गया है। केशवदास ही द्वारा रचित रामचंद्रचंद्रिका ऐसी ही एक प्रशिद्ध रचना है।  

रामचंद्रचंद्रिका कविता का सारांश- Ramchandra Chandrika Poem Summary 

प्रस्तुत काव्य में केशवदास जी की प्रशिद्ध रचना रामचंद्रचंद्रिका का एक अंश लिया गया है यह कविता तीन भागों में विभाजित है। पहले भाग में उन्होंने मां सरस्वती की महिमा का मन मोह लेना वाला वर्णन किया है। 

दूसरे भाग में यानी सवैया में उन्होंने पंचवटी का सुंदर वर्णन किया है

तीसरे भाग में श्री रामचंद्र के कुछ गुणों का वर्णन किया गया है, जो रावण की पत्नी मंदोदरी ने स्वयं किया है। 

रामचन्द्रचंद्रिका कविता- Ramchandra Chandrika Poem

                 सरस्वती वंदना

बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तपबृंद कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत बर्तमान जगत बखानत है ‘केसोदास’ क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
पति बनैं चारमुख पूत बनैं पांचमुख नाती बनैं षटमुख तदपि नई नई।।

               पंचवटी- वन- वर्णन

सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहं एक घटी।
निघटी रुचि  घटी हूं घटी जगजीव जतीन की छुटी तटी।
अघओघ की बेरी कटी बीकटी निकटी प्रकटी गुरूज्ञान-गटी।
चहुं ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी वन पंचबटी।।

                    अंगद

सिंधु तर्यो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बांधोई बांधत हो न बन्यो उन बारिधि बांधिकै बाट करी।
श्रीरघुनाथ- प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जाने परी।
तेलनि तूलनि पूंछि जरी न जरी, जरी लंक जराइ-जरी।।

रामचन्द्रचंद्रिका कविता की व्याख्या- Ramchandra Chandrika Poem Line by Line Explanation

बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तपबृंद कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई।
भावी भूत बर्तमान जगत बखानत है ‘केसोदास’ क्यों हू ना बखानी काहू पै गई।
पति बनैं चारमुख पूत बनैं पांचमुख नाती बनैं षटमुख तदपि नई नई।।

सरस्वती वंदना छंद की व्याख्या- कविता का यह अंश मां सरस्वती की वंदना है, जिसमें कवि केशवदास जी ने मां सरस्वती के वैभव सौंदर्य एवं गुणों के विषय में कुछ बातें हमें बताने का प्रयास किया है 

जब भी कोई शुभ कार्य हम आरंभ करते हैं, उससे पहले हम मां सरस्वती की मन ही मन पूजा अर्चना करते हैं।

ठीक उसी प्रकार कवि केशवदास जी ने अपनी इस कविता की शुरुआत करते समय मां सरस्वती की वंदना एवं स्तुति करना जरूरी समझा जाता है। तभी तो उन्होंने इस कविता की शुरुआत मां सरस्वती के सरस्वती वंदना को लिखकर शुरू की है।

कवि कहते हैं कि मां सरस्वती के वैभव, सौंदर्य इत्यादि का किसी के द्वारा बोलकर शब्दों के माध्यम से वर्णन करना संभव नहीं।

कवि यह भी कहते हैं कि देवता, ऋषि गण, तपस्वी सभी लोग मिलकर मां सरस्वती की प्रशंसा करने का बहुत बार प्रयास कर चुके हैं। मगर कोई भी उनकी प्रशंसा उनके व्यापक गुणों का, उनके सौंदर्य का वर्णन शब्दों के माध्यम से कभी भी नहीं कर पाए हैं।

आगे केशव दस ही ये भी कहते हैं कि आज तक ना कभी कोई व्यक्ति मां सरस्वती की महिमा का गुणगान कर पाया है, ना ही कर पाएगा और ना ही वर्तमान में कोई कर रहा है।

कवि केशवदास अंतिम पंक्तियों में यह कहते हैं कि मां सरस्वती के महिमा का व्याख्यान उनके 4 मुख वाले पति यानी ब्रह्मा नहीं कर पाए, पांच मुख वाले पुत्र यानी भगवान शिव भी उनके महिमा का गुण नहीं गा पाए और उनके पोते 6 मुख वाले कार्तिक भी उनके महिमा का गुणगान नहीं गा पाए, तो  फिर पृथ्वी में कोई भी ऐसा नहीं है, जो मां सरस्वती के गुणों का व्याख्यान कर पाए, क्योंकि शब्द कम पड़ जाएंगे और बिना शब्द के कुछ भी व्यक्त करना आसान नहीं होता।

सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहं एक घटी।
निघटी रुचि  घटी हूं घटी जगजीव जतीन की छुटी तटी।
अघओघ की बेरी कटी बीकटी निकटी प्रकटी गुरूज्ञान-गटी।
चहुं ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी वन पंचबटी।।

पंचवटी-वन-वर्णन छंद की व्याख्या- लक्ष्मण उर्मिला के इस भाग में कवि ने पंचवटी के सुंदरता का वर्णन किया है। कविता के इस अंश में लक्ष्मण एवं उर्मिला के मध्य पंचवटी के सुंदर-सुंदर गुणों के विषय में चर्चा होती है और उन दोनों के मध्य संवाद होता है

लक्ष्मण जी कहते हैं कि पंचवटी जिस स्थान पर स्थित है, वह स्थान इतना शुद्ध एवं शांत है कि वहां पर यदि दुखी से दुखी व्यक्ति भी जाता है, तो उसका मन शांत हो जाता है।

उसके मन की व्यथा खत्म हो जाती है और वह अच्छा महसूस करने लगता है। इतना ही नहीं जो व्यक्ति छल कपट करता है, जिनके मन में छल होता है, कपट होता है।

अगर ऐसे व्यक्ति भी पंचवटी पहुंच जाए, तो उसके मन से छल कपट सब कुछ दूर हो जाता है और वह एक अच्छा व्यक्ति बन जाता है

इतना ही नहीं पंचवटी के समक्ष आते ही हर व्यक्ति के मन में मौत को लेकर जो भय रहता है, वह चला जाता है एवं संसार के प्रति हर व्यक्ति की मोह माया क्षण भर में खत्म हो जाती है।

व्यक्ति की इच्छाएं आशाएं ,बाधाएं सब कुछ इस स्थान पर आकर खत्म हो जाती है

कवि केशव दास जी के इन पंक्तियों में लक्ष्मण उर्मिला से कहते हैं कि पंचवटी एक ऐसा स्थान है जहां पर हर व्यक्ति को एक गुरु मिलता है। जिसके समक्ष जाते ही व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है और गुरु ज्ञान को पाने के लिए वह माया, छल कपट, इच्छा, अभिलाषा सब कुछ त्याग कर देता है। 

गुरु रूपी ज्ञान के सागर में खुद को डूबा कर हमेशा हमेशा के लिए वह उसी स्थान पर रहना चाहता है

अंतिम पंक्तियों में कवि कहते हैं कि जिस तरह भगवान शिव की जटाओं में सब कुछ समाहित होता है, उसी तरह ही पंचवटी में आकर व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है अपने पापों से मुक्ति पा लेता है और हमेशा हमेशा के लिए पंचवटी में रह कर अपने आगे के जीवन को बिताना चाहता है।

सिंधु तर्यो उनको बनरा तुम पै धनुरेख गई न तरी।
बांधोई बांधत हो न बन्यो उन बारिधि बांधिकै बाट करी।
श्रीरघुनाथ- प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जाने परी।
तेलनि तूलनि पूंछि जरी न जरी, जरी लंक जराइ-जरी।।

अंगद छंद की व्याख्या- रामचंद्रचंद्रिका के लंका कांड से यह पंक्तियां ली गई है। यह संवाद रावण एवं अंगद के बीच होती है। जिसका कुछ इस तरह वर्णन किया गया है

अंगद रामचंद्र के गुणों का बखान करते हुए रावण से कुछ बातें करते हैं और वह सीता मैया को लौटाने की बात रावण से करते हैं।

अंगद कहते हैं कि भगवान राम का दूत यानी वानर हनुमान समुद्र पार करके लंका पहुंच गया मगर रावण इतने शक्तिशाली होकर भी लक्ष्मण द्वारा खिंची गई रेखा को पार नहीं कर सके।

अंगद कहते हैं कि रावण ने राम के दूत हनुमान को बांधने की कोशिश की मगर बांध न सके। वहीं दूसरी ओर राम एवं उनके दूत ने मिलकर समुद्र में पुल बांध लिया।

अंगद आगे कहते हैं कि हे दशानन इतना सबकुछ देखने के बावजूद भी अज्ञान हो राम के शक्तियों से, उनके शक्तियों के विषयों में तुमको कोई ज्ञान नहीं है।

अंत में अंगद रावण से कहते हैं कि रावण तुम तो हनुमान की पूंछ में कपड़ा बांधकर उसकी पूंछ में आग लगाकर जलाना चाहते थे। मगर न वह राम का दूत हनुमान जला, न उसकी पूंछ जली अगर कुछ जला तो वह तुम्हारी सोने की लंका जली।

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