Class 9 Hindi Kshitij Chapter 10 Summary
Vakh by Lalghad Class 9 in Hindi
ललघद का जीवन परिचय : ललघद का जन्म 1320 के आस-पास कश्मीर स्थित पांपोर गांव में हुआ था। ललघद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारीफ़ा आदि नामों से भी जाना जाता है। वे चौदहवीं सदी की एक भक्त कवयित्री थी, जो कश्मीर की शैव-भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी मानी जाती हैं। कश्मीरी संस्कृति और कश्मीर के लोगों के धार्मिक और सामाजिक विश्वासों के निर्माण में लल्लेश्वरी का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
ललघद की काव्य शैली को वाख कहा जाता है। इनकी कविताओं में चिंतन एवं भावनात्मकता का विचित्र संगम है। इन्होंने अपने वाखों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त धार्मिक आडंबरों का खुलकर विरोध किया है। इनकी काव्य-शैली की भाषा अत्यंत सरल मानी जाती है, जिसके वजह से ललघद और भी प्रभावशाली बन जाती हैं। ललघद आधुनिक कश्मीरी भाषा का प्रमुख स्तंभ मानी जाती हैं।
वाख कविता का सारांश : प्रस्तुत वाखों का संकलन मीरा कान्त जी ने किया है। यहाँ प्रस्तुत वाखों में कवयित्री ललघद हमें यह कहना चाह रही हैं कि ईश्वर को ढूंढने के लिए मंदिर-मस्जिद में जाने से कोई फायदा नहीं होगा। ईश्वर को प्राप्त करने का केवल एक ही मार्ग है। अगर कोई सच्चे हृदय से अपने अंतःकरण की ओर झांकेगा, तो ही वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। ललघद के अनुसार आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, जो हमें आडंबरों से भरी इस समाज रूपी नदी में डूबने से बचा सकता है। उन्होंने धार्मिक तथा अन्य भेदभावों का विरोध किया है और ईश्वर को एक बताया है। उनके अनुसार सद्कर्म के द्वारा ही हम इस मायाजाल से मुक्त हो सकते हैं। कवयित्री के अनुसार, हम सद्कर्म तभी कर सकते हैं, जब हम अपने अंदर बसे अहंकार से मुक्त हो पाएंगे।
वाख – ललघद (Vakh)
वाख – 1
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।।
वाख – 2
खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
वाख – 3
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
वाख – 4
थल थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
यही है साहिब से पहचान।।
Vakh Summary in Hindi Claas 9 – वाख भावार्थ (ललघद)
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक,घर जाने की चाह है घेरे।।
वाख कविता का प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-10 कविता ‘वाख’ से ली गई हैं। इस कविता की रचना कवयित्री ललघद जी ने की है। कवयित्री ने परमात्मा से मिलने के प्रयास का वर्णन किया है।
वाख कविता का भावार्थ :- कवयित्री ने इन पंक्तियों में अपने इंतज़ार और प्रयास का वर्णन किया है कि कब उनका मिलन परमात्मा से हो पाएगा। जिस तरह कच्चे घड़े से पानी टपक-टपक कर कम होता जाता है, उसी तरह कवयित्री का जीवन भी कम होता जा रहा है। इसी वजह से वे व्याकुल होती जा रही हैं कि कब ईश्वर उनकी पुकार सुनेंगे और इस संसार-रूपी सागर से उनका बेड़ा पार लगाएंगे। इन पंक्तियों में कवयित्री ने परमात्मा के निकट जाने वाले प्रयासों को कच्चे धागे से खींची जाने वाली नाव के रूप में बताया है। उन्होंने कच्चे धागे शब्द का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि मनुष्य कुछ समय के लिए ही इस धरती पर रहता है, उसके बाद उसे अपना शरीर त्यागना पड़ता है।
धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा है, पर कवयित्री द्वारा प्रभु-मिलन के लिए किये गए सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे हैं। अब उन्हें ऐसा लग रहा है कि समय खत्म होने वाला है, अर्थात मृत्यु समीप है और अब शायद वो प्रभु से मिल नहीं पाएंगी, इसलिए उनका हृदय तड़प रहा है। वो प्रभु से मिलकर उनके घर जाना चाहती हैं। अर्थात उनकी भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं।
वाख कविता का विशेष:-
1. रह- रह में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
2. इस कविता में गीतात्मक शैली है।
3. भाषा सहज, सरल और सुबोध है।
खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
वाख कविता का प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-10 कविता ‘वाख’ से ली गई हैं। इस कविता की रचना कवयित्री ललघद जी ने की है। कवयित्री ने बताया है कि अहंकार हो त्यागकर ही हम ईश्वर की भक्ति में लीन हो सकते हैं।
वाख कविता का भावार्थ :- अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं कि अगर हम सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहेंगे, तो कभी भी हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। इसके विपरीत अगर हम सांसारिक मोह-माया को छोड़कर त्याग और तपस्या में लग जाएंगे, तो इससे भी हमें कुछ लाभ नहीं होगा। भोग का पूरी तरह से त्याग करने पर हममें अहंकार आ जाएगा, जिसकी वजह से हमें मुक्ति अर्थात ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। इसी वजह से कवयित्री के अनुसार, दोनों रास्ते ही गलत हैं।
जब हम सांसारिक भोग-लिप्सा में तृप्त रहते हैं, तब तो हम सच्चे ज्ञान से दूर रहते ही हैं, इसके विपरीत जब हम त्याग और तपस्या में लीन हो जाते हैं, तब हमारे अंदर अहंकार रूपी अज्ञान आ जाता है, जिसके द्वारा हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते। इसीलिए कवयित्री हमें बीच का मार्ग अपनाने के लिए कह रही है। जिससे हमारे अंदर वासना और भोग-लिप्सा भी नहीं होगी और न ही अहंकार हमारे अंदर पनप पाएगा। तभी हमारे अंदर समानता की भावना रह पाएगी। इसके बाद ही हम प्रभु की भक्ति में सच्चे मन से लीन हो सकते हैं।
वाख कविता का विशेष:-
1. खा खा में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
2. खा खा, कर कुछ में अनुप्रास अलंकार है।
3. इस कविता में गीतात्मक शैली है।
4. भाषा सहज, सरल और सुबोध है।
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई ?
वाख कविता का प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-10 कविता ‘वाख’ से ली गई हैं। इस कविता की रचना कवयित्री ललघद जी ने की है। कवयित्री ने मनुष्य द्वारा ईश्वर प्राप्ति के तरीकों पर तीखा व्यंग्य किया है।
वाख कविता का भावार्थ :- इन पंक्तियों में कवयित्री ने मनुष्य द्वारा ईश्वर की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों पर कड़ा प्रहार किया है। यहाँ कवयित्री ये कहना चाहती हैं कि अपने जीवन की शुरुआत में उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए शुरुआत तो की, लेकिन उसके बाद उन्हें यह नहीं समझ आया कि कौनसा मार्ग सही है और कौनसा मार्ग गलत।
इसलिए वो राह भटक गईं, अर्थात संसार के आडम्बरों में बहक गईं। यहाँ रास्ता भटकने से मतलब है, समाज में प्रभु-भक्ति के लिए अपनाएं जाने वाले तरीके, जैसे कुंडली फेरना, जागरण करना, जप करना इत्यादि। परन्तु ये सब करने के बाद भी उनका परमात्मा से मिलन नहीं हुआ। इसी लिए वो दुखी हो गई हैं कि जीवनभर इतना सब कुछ करने के बाद भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ और वे खाली हाथ ही रह गईं। उन्हें तो अब ये डर लग रहा है कि जब वे भवसागर रूपी समाज को पार करके ईश्वर के पास जाएँगी, तो परमात्मा को क्या जवाब देंगी।
वाख कविता का विशेष:-
1. सुषुम-सेतु में अनुप्रास अलंकार है।
2. इस कविता में गीतात्मक शैली है।
3. भाषा सहज, सरल और सुबोध है।
थल थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
यही है साहिब से पहचान।।
वाख कविता का प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ पाठ-10 कविता ‘वाख’ से ली गई हैं। इस कविता की रचना कवयित्री ललघद जी ने की है। कवयित्री ने हमें धर्म के नाम पर भेदभाव न करने का संदेश दिया है।
वाख कविता का भावार्थ :- अपनी इन पंक्तियों में कवयित्री हमें भेद-भाव, हिन्दू-मुस्लिम इत्यादि समाज में व्याप्त बुराइयों का बहिष्कार करने का संदेश दे रही है। उनके अनुसार शिव (ईश्वर) हर जगह बसे हुए हैं, चाहे वो जल हो या आकाश या फिर धरती हो या प्राणी यहाँ तक कि हमारे अंदर भी ईश्वर बसा हुआ है। वह किसी व्यक्ति को ऊँच-नीच, भेद-भाव की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि वह हिन्दू-मुसलमान को एक ही नजर से देखता है।
उनके अनुसार ईश्वर की प्राप्ति के लिए सबसे पहले हमें आत्म-ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है, क्योंकि इससे ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर स्वयं हमारे अंदर आत्मा रूप में बसे हुए हैं। इसलिए कवयित्री ज्ञानी पुरुषों से कह रही हैं कि अगर तुम ज्ञानी हो, तो स्वयं को पहचानो क्योंकि आत्मज्ञान ही एक मात्र उपाय है, जिससे हम परमात्मा को समझ सकते हैं और उन्हें पहचान सकते हैं।
वाख कविता का विशेष:-
1. ‘थल थल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
2. ‘क्या कर’ में अनुप्रास अलंकार है।
3. इस कविता में गीतात्मक शैली है।
4. भाषा सहज, सरल और सुबोध है।
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